Harela Festival in Hindi : हरेला पर्व 2022


Key Points: Harela festival UPSC


4 जुलाई 2022 को उत्तराखंड के वन 'मंत्री सुबोध उनियाल' ने वन मुख्यालय परिसर में 'मंथन सभागार' में आयोजित बैठक में कहा कि पिछले साल की तरह इस साल भी 16 जुलाई को भी हरेला उत्सव पूरे राज्य में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाएगा.

Harela festival UPSC
Harela festival UPSC Image Credit: Dhyay IAS


प्रमुख बिंदु:


  • वन मंत्री ने कहा कि इस बार क्षेत्र की भौगोलिक और पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार पौधों का चयन किया जाएगा. इसके लिए वन विभाग द्वारा पौधे व तकनीक उपलब्ध कराई जाएगी।
  • इस दौरान वन विभाग ने राज्य भर में 15 लाख से अधिक पौधे लगाने का लक्ष्य रखा है. इसके तहत पहली बार इस महोत्सव के दौरान 50 प्रतिशत से अधिक फलदार वृक्ष लगाए जाएंगे।
  • हरेला उत्सव में स्कूल, कॉलेज व वन पंचायतों की भागीदारी बढ़ाने पर जोर दिया जाएगा। पौधे रोपने के बाद वे जीवित रहें और आने वाले समय में समाज को लाभ पहुंचाने के लिए प्रयास किए जाएंगे।
  • वन पंचायतों को सुदृढ़ करने की दृष्टि से इस बार फलदार वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है, ताकि भविष्य में वहां के लोगों की आजीविका को उनसे जोड़ा जा सके।
  • वन मंत्री ने कहा कि राज्य भर में पुलिस वन और मेरा वन विकसित किया जाएगा। इसके तहत स्कूल, कॉलेज और सभी विभागों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। लोग इन बगीचों में अपने, रिश्तेदारों और मृतक के नाम पर पौधे लगा सकेंगे। इन पौधों को जीवित रखने और संवारने की जिम्मेदारी भी संबंधित व्यक्ति को दी जाएगी।


हरेला पर्व यानि की हरियाली का दिन, यह उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल का सबसे लोकप्रिय लोकपर्व है। 

इंसान व प्रकृति को जोड़ने वाला यह पर्व हर साल सावन में मनाया जाता है, इस साल यह 16 July 2022 को उत्तराखंड (कुमाऊ) में मनाया जा रहा है 

Harela Festival in Hindi
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हरेला पर्व कला-संस्कृति :


  1. देवभूमि उत्तराखंड के लोगो के लिए जीवन का अर्थ है, प्रकृति से तादात्म्य।  इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है हरेला पर्व जो सावन के पहले दिन मनाया जाता है। 
  2. उत्तराखंड का यह राजकीय पर्व भी है , इसकी परंपरा यह भी रहा है की परिवार के जो मुखिया हो वह एक टोकरी में मिटटी डालकर उसमे गेहूँ, जौ, मक्का, उड़द, गृहत, सरसों और चना बो देते है। 
  3. नौवे दिन 'डिकर पूजा यानि की गुड़ाई' होती है और फिर दसवे दिन हरेला काटा जाता है और इसे देवी-देवताओ को अर्पित करने के बाद आशीर्वाद स्वरुप परिवार के सभी सदस्यों के सर पर रखा जाता है। 
  4. और ये कान के पीछे झूमती हरी-हरी लम्बी पतली हरेली की पत्तिया दिन भर पर्व का सूचक बन झूमती है। 
  5. कुछ लोगो का मानना है की जब आबादी कम थी और जमीन ज्यादा था और सुविधाएं क्षीण थी तब तक यह पर्व बड़े ही हर्षोउल्लास के  साथ मनाया जाता था पर अब जैसे की हर एक त्यौहार बीते समय के मंदा पड़ता जा रहा है। 


गर्मियों में घड़े का पानी प्राकृतिक रूप से तो आखिर बांज के घाट पर ही मिल पाना संभव था ना? पहाड़ में बिजली ही नहीं, तो फिर AC , पंखा, कूलर की बात कौन करे और कहे? 


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  • ये पेड़ भी अगर ना हो, तो फर्क कर पायेगा रेगिस्तान की गर्मी और पहाङ की बर्फ जैसी सर्दी में गढ़वाल में ग्वीराल, कुमाऊं में क्वीरल और मैदान इलाके में कचनार कहे जाने वाले वृक्ष की फलियों, छाल, फूल का सेवन भी अमृत से काम नहीं था। 
  • शरीर में कही भी कैंसर जैसी गाँठ हो जाये, तो उसे गलाने के लिए कचनार है न , इसके नियमित उपयोग से कही शरीर खुद कचनार न हो जाये, तो कहिये !तभी तो अपने बैगनी, गुलाबी, फूलो, के साथ यह जगह-जगह खड़ा मिल जाता था तब के समय में। 
  • को पर्यटनो की लगातार बढ़ती भीड़ और उसकी वजह से फैल रही गन्दगी, आवागमन की सुविधाओं के लिए टूटते पहाड़ो और कटते पेड़ों की वजह से ग्लेशियर के पिघलने की रफ़्तार और भी तेज हो गया है , जैसा की पर्यटन को हम रोक नहीं सकते और उनकी आस्था को हम चोटिल नहीं कर सकते। 
  • अब आने वाले समय में हिमालय क्षेत्र की तबाही से कोई बचा सकता है तो वो है पेड़। प्रदेशो में वनो और हरियाली को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए शहर- शहर, गांव -2 में हरेला पर्व की प्रासंगिकता, आज हमेशा से ज्यादा है। 

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